Sunday, 15 January 2012

Fear of personal layers in relations

सब कुछ खो चुका, अब बिखरे हुए " ख़ुद "  को सहेजकर , समेटकर चलने का वक्त है ! रास्ता नया है ; मंज़िल कुछ तय नहीं ; खोने को कुछ भी नहीं ; पर अवचेतन में धँसे " पीड़ा  के कुछ नासूर " जरूर साथ हैं - अब भय है तो कुछ " अपनाने का "– गोया की ये ----" खोने की शुरुआत मात्र है " ! सहमी हुई यादों की टीस ; आगे के सफ़र में बेनामी होते पदचिह्नों की कशिश ; पर पूरी दुनिया आपकी और आप दुनिया के पूरे !
                                                             चाँद अब फिर से मुस्कुराकर अपनाता है ; तो तारे भी इशारों की शरारत लिए साथ चलने लगे हैं ; हवाओं में सरसराती पत्तियों का संगीत फिर घुल रहा है ; शबनम की बूंदों में रात की अल्हड़ अठखेलियों  का बिम्ब अब फिर से साफ है !मैं,  "मैं " हूँ ; हम , " हम " हैं ; बस अब " तुम " के दख़ल से मुझे एतराज़ है !
                                शायद मैंने जीवन ऐसा ही चाहा था - मध्यांतर की अवांछनीय बाधा ने कुछ ख़लल ज़रूर डाला - पर मैं अब " मैं " हूँ - हम सब के लिए ! मैं अब " मैं " हूँ -सिर्फ ख़ुद का !!

      #        राजेश पाण्डेय

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