Monday 16 April 2012


दीये में जज़्बातों की बाती होती है ! Thomas Elwa Edison के बल्ब से C F L और अब neon lights की चकाचौंध, आँखों की पुतलियों पर सिकुड़ने- फैलने का करिश्मा ही कर सकती हैं -पर दिल तक तो सिर्फ मिट्टी के दीये की लौ ही पहुंचती है !
मेरे लिए दीये का धर्म से कोई रिश्ता नहीं है ! क्योंकि मै उस अबूझे , निराकार और सर्वव्यापी ईश्वर के अतिरिक्त किसी कपोल कल्पना को नहीं मानता ! धर्म के बंटवारे पर भी मेरा यक़ीन नहीं ! पर बचपन से माँ को आस्था का आँचल सर पर खींच कर दमकते दीये के आगे नतमस्तक होते देखा है ; शायद तब से मेरे लिए दीये में ममता का तेल पड़ता है !!

      फिर अकस्मात तुम आयीं ! मेरा हाथ थामकर ,तुलसी चौरे पर जलता दीपक सजा कर , उसकी धीमी आंच पर अपनी हथेली तपाती और बड़े स्नेह से मेरे माथे पर रख देती - मै भी भाव विभोर होकर तेरा माथा चूम लेता ! शायद तब से दीये की टिमटिमाती लौ की मद्धम आँच सर्वांग को छूने की कशिश पालती हैं !
राजेश पाण्डेय

Thursday 15 March 2012

Indian Railway and me


भारतीय रेल  :- पटरियों पर धड़कते अरमानों का सफ़र ! छुटपन में कम्पार्टमेंट की आबाद ज़िंदगी लुभाती थी , तो प्लेटफ़ॉर्म पर जोश से भरी खानाबदोशी का आलम ! कुल्हड़ की चाय का सुरूर तो अब भी ताज़गी से भर देता है !
                                      गुज़रते वक्त ने ज़िंदगी के इर्द गिर्द बहुत कुछ बदल कर रख दिया ! अब हवाई यात्रा या निजी वाहन के बाद ट्रेन तीसरा विकल्प है ; पर स्टेशन पर अपनी ट्रेन का इंतज़ार अब भी वैचित्र्य के संसार में ले जाता है :- क्या पता मेरे coupe में अक्समात ही वह भी हमसफ़र निकले और ज़िंदगी साथ ना गुज़ार पाने की कशिश को दो मुक़ामों के बीच के सफ़र में हम साथ साथ जी कर बहुत कुछ compensate कर सकें ! या क्या पता कोई मुसाफ़िर ही ऐसा मिले कि ,साथ का दायरा पटरियों से परे भी किसी चुहलबाजी करते कैफ़े या  थिएटर तक बढ़ जाए !
                यह advertisement नहीं है ---but - I love भारतीय रेल
                                                                                     # RAJESH PANDEY

All by Myself

I woo dreams and get rooted there: happily-ever-after-kind.
       I find sufficient company in myself  and have learned to bother less abt society and people . No defined , cage like enclosure of relations ; just an exposure of an individual to an individual : a person to existence. I am more at peace with myself : fly-light-feel.
                   So friends , cheers to me !!!

Sunday 15 January 2012

Notes from Dandkaranya

 You can't make a deliberate effort to churn out what is lost within . In the brief interlude of " sound silence " ; in juxtaposition with " parallel nemesis " of the past - these jungles with intermittent strokes of rustling leaves offer a balmy comfort . But it's just a remedy to the exposed wound ; or to some extent " forgetting " recent ills of life.
                                   Where's that " sweet me " :- I knew well and was most comfortable in whose shades of consciousness I used to be. I know , for sure , it's not " dead "  , but what if it fails to break open the " self sealed coffin " of YOU and ME.
                                              Come back " me " ; come back- I again want to say " that i am incapable of despising anybody  under the sun " ; I again want to rejoice that " single me " in the infinite sky of stars and the moon.
                                            Rajesh Pandey

Fear of personal layers in relations

सब कुछ खो चुका, अब बिखरे हुए " ख़ुद "  को सहेजकर , समेटकर चलने का वक्त है ! रास्ता नया है ; मंज़िल कुछ तय नहीं ; खोने को कुछ भी नहीं ; पर अवचेतन में धँसे " पीड़ा  के कुछ नासूर " जरूर साथ हैं - अब भय है तो कुछ " अपनाने का "– गोया की ये ----" खोने की शुरुआत मात्र है " ! सहमी हुई यादों की टीस ; आगे के सफ़र में बेनामी होते पदचिह्नों की कशिश ; पर पूरी दुनिया आपकी और आप दुनिया के पूरे !
                                                             चाँद अब फिर से मुस्कुराकर अपनाता है ; तो तारे भी इशारों की शरारत लिए साथ चलने लगे हैं ; हवाओं में सरसराती पत्तियों का संगीत फिर घुल रहा है ; शबनम की बूंदों में रात की अल्हड़ अठखेलियों  का बिम्ब अब फिर से साफ है !मैं,  "मैं " हूँ ; हम , " हम " हैं ; बस अब " तुम " के दख़ल से मुझे एतराज़ है !
                                शायद मैंने जीवन ऐसा ही चाहा था - मध्यांतर की अवांछनीय बाधा ने कुछ ख़लल ज़रूर डाला - पर मैं अब " मैं " हूँ - हम सब के लिए ! मैं अब " मैं " हूँ -सिर्फ ख़ुद का !!

      #        राजेश पाण्डेय