Saturday 3 September 2016

पापा नहीं रहे

" *पापा नहीं रहे* "। कौंध जाता है ज़ेहन में । लगातार नहीं , पर बार , बार , अचानक । जैसे कभी आप विचारों में गुम हों और बरबस ही बिजली कड़क जाए , और आप चौंक कर जानें की बाहर रिमझिम सा बरस रहा है , न जाने कब से । हाँ ऐसा ही कुछ भीतर ही भीतर रिस रहा है । सब के पापा होते हैं , मेरे भी " थे " ; और बस ये *"थे"* कौंध जाता है , अचानक से ।
               वो जीना चाहते थे - आँखें बोलती थीं , कातर नहीं थीं पर बेबसी ने एक धार पैदा कर दी थी --- कई बार कलेजा चीर गईं मेरा- हम सब का । मैं नज़रें चुराता था , वो अपलक निहारते थे । बहुत कुछ बुरा चल रहा था- समझते थे - पर भरोसा था अपने दोनों बेटों पर । कुछ न कुछ रास्ता निकालेंगे ये - कैंसर भी एक बीमारी ही तो है । उनकी जीवन साथी देती थी ऐसा भरोसा । अभी तो घर पर दोनों छोटे बच्चों के साथ खेलना रह गया था -  दादा थे वो ,  टकटकी लगा देते थे पोतों पर । भीतर ही भीतर कुछ चलता रहता था , कहते नहीं थे - पर मैं जानता हूँ - वो जीना चाहते थे - अभी थोड़ा और । भरोसा था - इच्छा थी - कारण थे- पर फिर भी पापा नहीं रहे । कौंध जाता है कभी-कभी अचानक- लगातार नहीं , पर बार-बार ।
                                      #  राजेश पाण्डेय

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